शादी से पहले मैं बेरोजगार था ,आज भी बेरोजगार हु ,फर्क बस इतना हैं पहले कवि था,आज कहानी कर हु ,कवि से कहानी कार बन्ने की भी एक कहानी हैं ,बात शादी से पहले की हैं थोद्दी पुराणी हें ,पहले मैं श्रंगार की कविता लिखता था, सकल सूरत से गीतकारदीखता था ,पर सदीके बाद जब श्री मति जी हमारे घर आई ,मेरे श्रंगारिक रूप को बहुत दिनों तक बर्दास्त नही केर पायी ,एक रात जब मैं कवि सम्मेलन से घर aaya , आब न देखा ताब झगड़ गयी ,
मैंने कहा प्रिया मेरे गीत हें तुम्हारे लिए , बे बोली देखो मुझे बेबकूफ मत बनाओ , सही सही बताओ जब मैं नही थी ,तो किसके लिए आहें भरा कर्त्ते थे , मैंने कहा प्रिया पहले मैं तुम्हारी कल्पना मैं गीत लिखता था अब तुम्हारे प्यार मैं गीत लिखता हूँ, फिर भी तुमको दौब्त फुल दीखता हू ,पर उन्हें मेरी बात samajh मैं नही आई, और और वो नाराज़ होके मायके चली गयी ,वहीँ से चिट्ठी भिजवाई ,गीत लिखना छोड़ दोगे ,तो वापिस ससुराल औंगी वरना साडी उमर मायके मैं बितौंगी ,
लाइफ को खतरे मैं जानकर बीबी की बात मानकर मैं हास्य लिखना सुरु केर दिया ,पर जल्द ही इसका परिणाम भी भुगत लिया , एक कवि सम्मलेन मैं मैं नेता जी पर एक हास्य रचना सुनायी रचना पब्लिक को तो बहुत पसंद आई पैर नेताजी को बिल्कुल नही भाई , रचना की समाप्ति पर , पब्लिक तालियाँ पीट रही थी , और नेताजी मुझे ,
मैं एक हफ्ते अस्पताल मैं रहा , उसके बाद मैंने किसी नेता के बारे मैं कुछ नही कहा ,अगले कवि सम्मलेन मैं मैंने एक पुलिस पैर हास्य रचना सुना दी ,तो एक दरोगा जी ने हमको अपनी पॉवर दिखा दी ,उनकी लाठी को आ गया जोश , मैं तीन दिन तक रहा बेहोश ,छूते दिन मैंने अपने आप को जेल के अंदर पाया किसी तरेह जमानत कराकर घर वापिस आया ,वे बोली पता नही कविता कैसी सुनते हो, मर्द होकर भी पिट जाते हो,
उनकी बातो से मेरा पुरुस जग गया,मैं वीर रस की कविता लिखने लग गया ,बहार से कवि सम्मलेन मैं जब मैंने वीर रस का एक गीत सुनाया उस्सका भी ग़लत परिणाम ही सामने आया ,मेरे ओजस्वी विचारो से लोगो के मन मैं जोश भर गया ,और वहां की व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ गया , लोगो ने अपना आक्रोश वहां खड़े एक आधी करी पर उतरा ,इस बात को लेकर आयाज्को ने मुझे बहुत मारा , मैं बहुत चीखा चिल्लाया ,किसी तरह लंगडाते हुए घर वापिस आया
मैंने फटापट उन्हें हाल सुनाया ,बे फिर बोली तुमने फिर गच्चा खाया ,मैंने कहा प्रिया कविता लिखना सरल हें ,पर सुनना बहुत कठिन हें, और अगर सुना दो, तो घर सही सलामत आना कठिन हें
ब्रज दीप सिंह (अभय)
7 comments:
आपकी ये रचना हम एक लोकल कवि मंच G-97 से भी सुन चुके हैं।
achha hai bhai
swagat hai
अभय जी,
बढ़िया है। इसी तरह लिखते रहें। धीरे-धीरे सामाजिक सरोकारों की ओर भी बढ़ें।
Aapne likha achhaa hai...lekin "wartee" kee galatiyon me lagtaa hai,aap mujhse aage nikal gaye hain aap..! Waise manhi man khush bhee huee ye mehsoos karke !
sneh aur shubh kaamnayon sahit
shama
gar "word verification" hai, to please nikal den...comments post karneme adhik suvidha rahegi!
good. narayan narayan
बढ़िया है। इसी तरह लिखते रहें। धीरे-धीरे सामाजिक सरोकारों की ओर भी बढ़ें।
प्रस्तुत व्यंग्य विभिन्न व्यंगकारों की मिली जुली रचना लगती है.
वैसे आपका ब्लॉग अच्छा लगा - वर्तनी और पैराग्राफ में त्रुटियाँ नज़र आती है.
सुलभ ( यादों का इंद्रजाल )
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