Wednesday, February 3, 2010

आइना ऑफ़ समाज

अभिमानो की चट्टानों पे बैठ कर देख रहे थे ,सुनहरे कल को ,सवारना चाहते थे अपने समाज को ,निपुण करना चाहते थे नई नस्ल को ,बनाया था मंजिलो का रास्ता अलग से ,करेंगे सरल जीवन की कठोर डगर को ,बना लिया था जीवन का उद्देशयबस धरातल पर उतरने की सोच रहे थे स्वप्न को ,अडचनोंके बारे मैं भी बना लिया था अपना नजिरया ,की दूंध कहाँ तक रोक पायेगी सूरज की किरण को ,पर देख न पाए थे समाज का वो रूप ,जो खोखला कर देता हैं हम जैसो के नज़रियो को ,नहीं मानते हैं ये भाई को भाई ,धूमिल कर देते हैं चरित्रवान के चरित्र को
दूसरो के जलते घरो को बना लेते हैं अलाब अपना ,महसूस भी नहीं करते हैं उसकी तपन को ,अपनों की परबह किसे ,देखते हैं दूसरो की जिन्दगी मैं ,कहीं तो मौका मिलेगा ,उनके मखोल को