तन्हाईयों की तनहा राहों से तनहा निकलना चाहता हू ,हूँ उदास मगर खुश रहना चाहता हू
देती हैं जिंदगी कदम कदम पे गम ,मैं उन गमो को पैमाने मैं पीना चाहते हू
नहीं हैं मुझे मेरे कल पे भरोसा ,मैं अपने आज को पूरा जीना चाहता हू
सोचता हू के होते मेरे भी मुक्कदर के शहर,फिर सोचता हूँ ये मैं क्या सोचे जा रहा हू
कुरेदते हैं जो जख्मो को नुमाइश के लिए ,मैं उन जख्मो पर मरहम लगाना चाहता हूँ
बदल दिया था मैंने अपने आप को इस ज़माने के लिए , मैं फिर अपने आप को पाना चाहता हूँ
कहते हैं होगा वहीँ जो चाहता हैं खुदा ,मैं उस खुदा के मनसूबे जानना चाहता हू
जिंदगी को जी रहा हू सर्कस बनाकर ,मैं इस जिंदगी के मायने जानना चाहता हूँ
करना चाहता हूँ मैं भी समंदर को पार ,पर मैं समंदर को तैर कर जाना चाहता हूँ
सभी नहीं होते हैं जहां मैं अपने दोस्तों ,मैं उन अपनों को पहचानना चाहता हूँ
हैं मुझे भी मेरे हमसफ़र का इंतज़ार,पर पहले मैं उसे आज़माना चाहता हूँ
जीने के होते हैं सबके अपने तरीके ,मैं उन तरीको को आजमाना चाहता हूँ
शायद खाली रख दिया हैं रब ने पन्ना मेरी किस्मत का ,मैं उसे खुद लिख के जाना चाहता हूँ
4 comments:
बहुत उम्दा, व्यवस्थापक महोदय से आप धीरे धीरे एक उदीयमान लेखक के तौर पर उभर रहे हैं। जारी रखिए। बेबाकी से लिखते रहिए। एक दिन ठोकर लाएगी रंगत ।
वाह ये तो दर्शन और प्रयोगधर्मिता की मिली जुली बानगी है। इसमें कर्मठता है, जुझारूपन है। सब कुछ सहकर तज़ुर्बे की धूप में तपने की चाह। सही है राह। यही है सफलती की कुंजी और आखिरी पंक्ति जबरदस्त है।
bhai sahab ne dil ji kholkar rakh diya h pura... yahi jindigi h jiska pata nahi
ha ji bandhu bahut khubsurat biyakhiya ki hai aapne
Post a Comment