जिन्दगी के भी खेल निराले हैं ,कभी खड़े होने की जगह नहीं
कभी बैठाने भी बाले हैं
आते हैं सब एक सा साजो सामान लेकर ,
लेकिन उनमे से कुछ अलग करने वाले हैं
जीते हैं सब ज़िन्दगी को एक उमंग के लिए
लेकिन गम और दुःख कहाँ साथ छोड़ने वाले हैं
कहते हैं सब के हम बनेगे सब से अलग
लेकिन पता चलता हैं के हम तो इसी भीड़ मैं चलने वाले हैं
करना चाहते हैं सब जीवन की पगदंद्दी को पार
लेकिन छोटे से मोड़ पर सब रोने वाले हैं
क्या पता कल किसका अलग हो दोस्तों
लेकिन हम तो यहीं जिंदगी की राहो मैं भटकने वाले हैं
4 comments:
JINDGI HE ISE SAMJHNA MUSHKIL HE BHAI
ACHI RACHNA HE
http://kavyawani.blogspot.com/
SHEKHAR KUMAWAT
बहुत प्यारी कविता...
आलोक साहिल
जिंदगी की राहों पर भटकिए...और भटकते रहिए...एक दिन ऐसा आएगा जब मंजिल मिलेगी। भटकने का दर्शन लाजवाब है। जो भटकता है वही सफलता के पास फटकता है। भटकते रहिए।
तुम आदमी सड़क के। आदमी का मुकद्दर सड़क पर ही खुलता है। सड़क उम्मीद है। चलते रहो ये सपने बनाती बिगाड़ती है। बस उम्मीद के सहारे ही ज़िंदगी कट जाएगी। अच्छा लिखा है।
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